अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥20॥
अहम्-मैं; आत्मा आत्मा; गुडाकेश–निद्रा को वश में करने वाला, अर्जुन, सर्व-भूत-समस्त जीव; आशय-स्थित:-हृदय में स्थित; अहम्-मैं; आदि:-आदि च–भी मध्यम्-मध्य; च-भी; भूतानाम् समस्त जीवों का; अन्तः-अंत; एव–निश्चय ही; च-भी।
BG 10.20: विभूति योग मैं सभी जीवित प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ।
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श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि वे आत्मा से दूर नहीं हैं बल्कि वास्तव में वे आत्मा के निकट से निकटस्थ हैं। आत्मा या शाश्वत आत्मा सभी जीवों के ईश्वरीय हृदय में स्थित है। वेदों में वर्णन है-“य आत्मनि तिष्ठति" अर्थात "भगवान हम सभी जीवों की आत्मा में स्थित हैं।" वे भीतर बैठकर आत्मा को चेतना शक्ति और अमरता प्रदान करते हैं। यदि वे अपनी शक्तियों को कम कर दें, तब हम आत्माएँ जड़वत् और नष्ट हो जाएगी। इसलिए हम जीवात्माएँ अपनी स्वयं की शक्ति से अविनाशी और चेतन नहीं होती अपितु परम चेतन और अविनाशी भगवान की कृपा से चेतन रहती हैं इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सभी जीवों के हृदय में रहते हैं। हमारी आत्मा भगवान का शरीर है जो सब आत्माओं की आत्मा अर्थात परमात्मा हैं। श्रीमद्भागवतम् में भी ऐसा वर्णन किया गया है
हरिर्हि साक्षाद्भगवान् शरीरिणा
मात्मा झषाणामिव तोयमीप्सितम्।
(श्रीमद्भागवतम्-5.18.13)
"भगवान सभी जीवों की आत्मा की आत्मा है।" भागवत में पुनः कहा गया है कि जब शुकदेव ने यह वर्णन किया कि किस प्रकार से गोपियाँ अपने बच्चों को घर पर छोड़कर बाल श्रीकृष्ण को निहारने के लिए जाती थी, तब परीक्षित ने प्रश्न किया कि ऐसा कैसे संभव था। ब्रह्मन्
परोद्भवे कृष्णे इयान् प्रेमा कथं भवेत् ।।
(श्रीमद्भागवतम्-10.14.49)
"हे ब्राह्ममण देव, सभी माताओं की अपने बच्चों में आसक्ति होती है तब गोपियों की श्रीकृष्ण के साथ ऐसी गहन आसक्ति कैसे हो गयी जितनी वे अपने स्वयं के बच्चों में अनुभव नहीं करती थीं।" शुकदेव ने उत्तर देते हुए कहा
कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्
(श्रीमद्भागवतम्-10.14.55)
"कृपया यह समझो कि श्रीकृष्ण इस ब्रह्माण्ड के सभी जीवों की परम आत्मा हैं। वे मानव मात्र के कल्याण के लिए अपनी अतरंग शक्ति 'योगमाया' द्वारा मनुष्य के रूप में धरती पर प्रकट होते हैं।" श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि वे सभी प्राणियों के आदि, मध्य और अन्त हैं। वे सब भगवान से उत्पन्न होते हैं इसलिए भगवान उनके आदि हैं। सृष्टि के सभी जीवित प्राणियों का निर्वाह उनकी शक्ति से होता है इसलिए वे सबके मध्य हैं और जो मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं वे उनके दिव्य लोक में उनके साथ सदा के लिए रहने आ जाते हैं। इसलिए भगवान सभी जीवों के अन्त भी हैं।
वेदों में प्रदत्त भगवान की विभिन्न परिभाषाओं में से एक वर्णन इस प्रकार है
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति ।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
(तैत्तरीयोपनिषद-3.1.1)
"भगवान वह है जिससे सभी जीवों की उत्पत्ति हुई है। भगवान वह है जिसमें सभी जीव स्थित हैं। भगवान वह हैं, जिसमें सभी जीव लीन हो जाएंगे।"